शिक्षा संबंधी चिंतन पर विचार कर सकते हैं। आइए, सबसे पहले गाँधी के शिक्षा संबंधी आश्रमी आदर्शों की सूची को ही देख लें; इस सूची में २७ बिंद हैं। इसमें वे शिक्षा ग्रहण के तीन चरणों का उल्लेख करते हैं। पहला चरण आठ वर्ष तक, दूसरा नौ से सोलह वर्ष तक और तीसरा सोलह से पच्चीस वर्ष तक। इन तीन चरणों में 'लड़के-लड़कियों के साथ पढने, रुचि के अनुरूप कार्य सौंपने, शारीरिक श्रम करने, खेल-खेल में शिक्षा देने, बलपूर्वक शिक्षा न देने, सारी शिक्षा मातृभाषा में देने, लिखने से पहले पढ़ना सीखने आदि बहुत ही साधारण बातों का उल्लेख हुआ है। लेकिन इसके बाद जिन खास बातों का उल्लेख हुआ है, उन्हें जानना खास दिलचस्प है। जैसे : नौ साल के बाद "बच्चों को हिंदी-उर्दू का ज्ञान राष्ट्रभाषा के तौर पर देना चाहिए, धार्मिक शिक्षा जरूरी मानी जाएवह पुस्तक द्वारा नहीं शिक्षक के आचरण द्वारा मिलनी चाहिए, हिंदू बालक को संस्कृत का और मुसलमान बालक को अरबी का ज्ञान मिलना चाहिए और इसके साथ ही बच्चे की सारी शिक्षा मातृभाषा द्वारा होनी चाहिए।"२ इसके बाद यह बताना शेष नहीं रह जाता है कि गाँधी शिक्षा के चश्मे से जिस 'भारत का सपना' देख रहे थे, भविष्य में उसके पूरा होने की न उम्मीद थी, न जरूरत। दरअसल गाँधी का सपना 'बच्चे' को शिक्षित करने से ज्यादा उन्हें 'भाषाविद' बनाने पर बल देता था। गाँधी एक किशोर वय के शिक्षार्थी से उम्मीद कर रहे थे कि वह अपनी मातृभाषा भी जाने, हिंदी-उर्दू भी जाने, हिंदू हो तो संस्कृत और मुसलमान हो तो अरबी भी जाने और इसके साथ ही अंग्रेजी भी सीखें। आश्रमी आदर्श का २७वां बिंदु कहता था कि : "अंग्रेजी का अभ्यास भाषा के रूप में हो और उसे पाठ्यक्रम में जगह मिले''३ गाँधी के ये आश्रमी आदर्श मुझे उतना बेचैन नहीं करते जितना यह कि "धार्मिक शिक्षा जरूरी मानी जाए। वह पुस्तक द्वारा नहीं बल्कि शिक्षक के आचरण और उसके मुँह से मिलनी चाहिए।" कहना न होगा कि शिक्षक के मुंह से मिलने वाली शिक्षा बच्चे के जेहन में साम्प्रदायिकता का जहर भी घोल सकती है, और सेकुलरिज्म का शहद भी और फिर यह कैसे तय होगा कि शिक्षक का कैसा आचरण और कैसी वाणी बच्चे के लिए आदर्श होगा? इससे तो अच्छा कोई ऐसी पुस्तक ही होती जो सारे धर्मों के मूल-तत्वों का निचोड़ लेकर मानवीय गरिमा और आदर्शों के अनुरूप तैयार की जाती और शिक्षकों-शिक्षार्थियों को पढ़ने के लिए दी जाती। लेकिन गाँधी को इन सब बातों से कुछ खास लेना-देना नहीं था। उनके एजेंडे पर दरअसल सबसे ऊपर राजनीति थी। जिसका मकसद था, साम्राज्यवादी शासन की गुलामी से आजादी। अपने इसी राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए वे समाज के सामने शिक्षा का भी ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना चाहते थे, कि हिंदू-मुस्लिम दोनों में किसी को भी ये एहसास न हो कि उसे कमतर समझ कर उसकी उपेक्षा की जा रही है। गाँधी ने अपनी अधिकांश ऊर्जा हिंदू-मुस्लिम के बीच संतुलन बैठने में ही गँवा दी। वे ऐसा संतुलन बैठाना चाहते थे जिसमे न हिद् नाराज हों, न मुसलमान और दोनों मिलकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लें। गाँधी को थोड़ा गहराई से पढ़ें तो पाएंगे कि वे हिंदू-मुस्लिम अंतर्विरोधों को ही भारतीय समाज के मूल अंतर्विरोध के रूप में देखते हैं और सबसे पहले इसी को हल कर लेना चाहते हैं। न मालूम इस बात को वे क्यों स्वीकार नहीं कर पाए कि हिंदू-मुसलमान का गठजोड़ किए बगैर भी दोनों आजादी की लड़ाई अपने निजी हितों के लिए लड़ते ही लड़ते। दरअसल गाँधी चाहते थे कि दोनों समुदायों के आजादी के सपने एक से हो जाएँ, जो कि संभव नहीं था। इसलिए कि दोनों समुदायों के अपने अलग सपने और अलग हित थे, जिनमें गहरे अंतर्विरोध थे। इस दौर में गाँधी से होने वाली पहली बड़ी चूक थी, दो भिन्न धार्मिक समुदायों के हित को एक करने का प्रयास। दूसरी बड़ी चूक थी, देशव्यापी राष्ट्रीय आन्दोलनों में बड़ी संख्या में भाग लेने वाली स्त्रियों की उपस्थिति को सिर्फ प्रतीकात्मक बनाए रखना। वे स्त्रियों की राजनीतिक सक्रियता और आन्दोलनों में उत्साहजनक भागीदारी को जरा तंग नजरिए से देखते थे। इस मामले में उनका दृढ मत था कि स्त्रियों का मूल उत्तरदायित्व घर-बार संभालते हुए घर में कुशल पत्नी और ममतामयी मां बन कर रहना है। वे स्त्रियों के हाथ में राजनीतिक शक्ति, सत्ता और नेतृत्व देने के समर्थक नहीं थे। संभवतः इसीलिए स्त्रियों की शिक्षा का कोई ठोस मॉडल उनके एजेंडे में दिखाई नहीं देता। गाँधी ने लिखा है: 'स्त्रियों की विशेष शिक्षा कैसी हो और कहाँ से शुरू हो, इसके विषय में मै खुद निश्चय नहीं कर पाया हूँ'। तीसरी बड़ी चूक थीजाति और वर्ग के अंतर्विरोधों को बहुत धुंधला करके देखने की। दलित समूह सामाजिक रूप से अपमानित-उपेक्षित होने के साथ ही गरीब भी था, जबकि सनातनी समूह सामाजिक रूप से सम्मानित-श्रेष्ठ और अमीर था। गाँधी दलित और सनातनी समूहों में किस स्तर पर 'अंतर' और किस स्तर पर 'विभाजन' है, इस मर्म को जाने-समझे बिना; इन दोनों समूहों को वे अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुकूल संतुष्ट कर देना चाहते थे। गाँधी अमीरी और गरीबी के अंतर' को मिटा देना चाहते थे और दलित तथा सनातनी विभाजन का 'अनुकूलन' कर देना चाहते थे, जबकि इसके उलट प्रयास यह होना चाहिए था, कि दलित और सनातनी के 'विभाजन' को मिटाया जाए तथा अमीरी और गरीबी के अंतर का 'अनुकूलन' कर लिया जाए। दलितों और गरीबों के प्रति कोई वास्तविक चिंता न होने के कारण ही गाँधी के पास देश के लाखों दलितों, पिछड़ों और आदिवासी गरीब बच्चों के लिए उच्च शिक्षा, बल्कि शिक्षा की ही कोई ठोस नीति नहीं थी। ऐसे बच्चों के लिए वे 'नई तालीम' और 'बुनियादी शिक्षा' में इस बात पर बल देते हैं : 'बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना..... हमारे जैसे गरीब देश में हाथ की तालीम जारी करने से दो हेतु सिद्ध होंगे। उससे हमारे बालकों की शिक्षा का खर्च निकल आएगा और वे ऐसा धंधा सीख लेंगे, जिसका अगर वे चाहें तो उत्तर-जीवन में अपनी जीविका के लिए सहारा ले सकते हैं।'६ गाँधी समाज के सर्वहारा वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से के लिए शिक्षा का जो मॉडल देते हैं, उसे आजकल की प्रचलित शब्दावली में 'स्किल इंडिया' कह सकते हैं। वे इस बड़े हिस्से को सिर्फ पेट भरने और 'नैतिक' बने रहने की ही शिक्षा देने के समर्थक थे। गाँधी इन लोगों की शिक्षा पर न केवल राज्य का खर्च रोकना चाहते थे, बल्कि उन्हें ऐसी शिक्षा लेने की तरफ बढ़ने से भी रोकना चाहते थे, जो मनुष्य में ऐसी तार्किक और राजनैतिक बुद्धि का विकास करती है, जिससे सवाल पैदा होते हैं और यह विवेक भी कि अपने अधिकार पहचानें, शोषण, अन्याय और गैर-बराबरी पर तंज कसें और कठोरता पूर्वक उसका विरोध करें। गाँधी न जाने देश की बहुसंख्यक गरीब जनता को किताबों और पढ़ने-लिखने के कौशल से क्यों दूर रखना चाहते थे? वर्ना वे यह नहीं लिखते कि 'अक्षर-ज्ञान अपने-आप में शिक्षा नहीं है। इसलिए मै बच्चे की शिक्षा का श्री गणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी सिखाकर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे, उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य बना कर करूंगा। मेरा मत है कि इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है। कहना न होगा कि ऐसा मस्तिष्क और ऐसी आत्मा के चाहे जितने 'उच्चतम विकास' की बात गाँधी कर लें, सच यही है कि दुनिया की तमाम पुस्तकें पढ़े बिना, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सिद्धांतों, विचारों और इनपर होने वाले गहनतम चिंतन का ज्ञान हम नहीं पा सकते और बगैर इसके हम ऐसे समाज के निर्माण में अपनी कोई भूमिका नहीं निभा सकते जोशोषणविहीन, समतावादी और न्यायपूर्ण हो, और जिस पर अडिग होकर हम सामान्य मानवीय गरिमा के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े होने का साहस जुटा सकते हैं।
जो मनुष्य में ऐसी तार्किक और राजनैतिक बुद्धि का विकास करती है,